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सं नो॑ रा॒या बृ॑ह॒ता वि॒श्वपे॑शसा मिमि॒क्ष्वा समिळा॑भि॒रा । सं द्यु॒म्नेन॑ विश्व॒तुरो॑षो महि॒ सं वाजै॑र्वाजिनीवति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

saṁ no rāyā bṛhatā viśvapeśasā mimikṣvā sam iḻābhir ā | saṁ dyumnena viśvaturoṣo mahi saṁ vājair vājinīvati ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम् । नः॒ । रा॒या । बृ॒ह॒ता । वि॒श्वपे॑शसा । मि॒मि॒क्ष्व । सम् । इळा॑भिः । आ । सम् । द्यु॒म्नेन॑ । वि॒श्व॒तुरा॑ । उ॒षः॒ । म॒हि॒ । सम् । वाजैः॑ । वा॒जि॒नी॒व॒ति॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:48» मन्त्र:16 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:5» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:9» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह किससे क्या दे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (उषः) प्रातः समय के सम तुल्य वर्त्तमान (वाजिनीवति) प्रशंसनीय क्रियायुक्त (महि) पूजनीय विद्वान् स्त्री ! तू जैसे (उषाः) सब रूप को प्रकाश करनेवाली प्रातःसमय की वेला (विश्वपेशसा) सब सुन्दर रूप युक्त (बृहता) बड़े (विश्वतुरा) सबको प्रवृत्त करने (संद्युम्नेन) विद्या धर्मादि गुण प्रकाश युक्त (राया) प्रशंसनीय धन (सामिड़ाभिः) भूमि वाणी नीति और (संवाजैः) अच्छे प्रकार युद्ध अन्न विज्ञान से (नः) हम लोगों को सुख देती है वैसे ही इन से तू हमे सुख दे ॥१६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे विद्वानों की विद्या शिक्षा से उषा के गुण का ज्ञान होके उससे पुरुषार्थ सिद्धि फिर उससे सब सुखों की निमित्त विद्या प्राप्त होती है वैसे ही माता की शिक्षा से पुत्र उत्तम होते है और प्रकार से नहीं ॥१६॥ इस सूक्त में उषा के दृष्टान्त करके कन्या और स्त्रियों के लक्षणों का प्रतिपदान करने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह अड़तालीसवां सूक्त ४८ और पांचवां वर्ग ५ समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(सम्) सम्यगर्थे (नः) अस्मभ्यम् (राया) प्रशस्तधनेन (बृहता) महता (विश्वपेशसा) विश्वानि सर्वाणि पेशांसि रूपाणि यस्मात्तेन (मिमिक्ष्व) मेदुमिच्छ। अत्र अन्येषामपि० इति दीर्घः। (सम्) एकीभावे (इडाभिः) भूमिवाणीनीतिभिः। इडेति पृथिवीना०। निघं० १।१। वाङ्ना० निघं० १।११। पदना० निघं० ५।५। अनेन प्राप्तुं योग्या नीतिर्गृह्यते। (आ) समन्तात् (सम्) श्रैष्ठ्येर्थे (द्युम्नेन) विद्याधर्मादिगुणप्रकाशवता (विश्वतुरा) यद्विश्वं सर्वं तुरति त्वरयति तेन (उषः) उषर्वत् सर्वरूपप्रकाशिके (महि) पूजनीये (सम्) सम्यक् (वाजैः) युद्धैरन्नैर्विज्ञानैर्वा (वाजिनीवति) प्रशस्ता वाजिनी क्रिया विद्यते यस्यास्तत्सम्बुद्धौ ॥१६॥

अन्वय:

पुनस्सा केन किं दद्यादित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे उषर्वद्वर्त्तमाने वाजिनीवति महि विदुषि स्त्रि ! यथोषा विश्वपेशसा बृहता संविश्चतुरा संद्युम्नेन राया समिडाभिः संवाजैर्नः सुखयति तथैतैस्त्वमस्मान्सुखय ॥१६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। विदुषां शिक्षयोषर्गुणज्ञानेन सुहितैर्मनुष्यैर्भूत्वाऽनेन पुरुषार्थसिद्धेः सर्वाणि सुखनिमित्तानि वस्तूनि जायन्ते तथा मातृशिक्षयैवाऽपत्यान्युत्तमानि भवन्ति नान्यथा ॥१६॥ अत्रोषर्दृष्टान्तेन कन्यास्त्रीणां लक्षणप्रतिपादनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति बोध्यम् ॥ इत्यष्टाचत्वारिंशं सूक्तं पञ्चमो वर्गश्च समाप्तः ॥४८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वानाच्या शिक्षणामुळे उषेच्या गुणांचे ज्ञान होते व त्यामुळे पुरुषार्थ सिद्धी होते. त्यानंतर सर्व सुखाचे निमित्त असलेले पदार्थ प्राप्त होतात. इतर प्रकारे नाही. ॥ १६ ॥